आज कुछ माँगती हूँ मैं प्रिय
क्या दे सकोगे तुम?
मौन का मौन में प्रत्युत्तर
अनछुये छुअन का अहसास
देर तक चुप्पी को बाँध कर खेलो अपने आसपास
क्या ऐसी सीमा में खुद को प्रिय बांध सकोगे तुम
आज कुछ माँगती हूँ प्रिय...
तुम्हारे इक छोटे से दुख से कभी जो मेरा मन भर आये
ढुलक पड़े आँखों से मोती सीमा तोड़ कर बह जाये
तो ज़रा देर उँगली पर अपने दे देना रुकने को जगह तुम
उसे थोड़ी देर का आश्रय प्रिय क्या दे सकोगे तुम?
आज कुछ मांगती हूँ प्रिय...
कभी जब देर तक तुम्हारीआंखों में मैं न रह पाऊँ
बोझिल से सपनों के भीड़में धीरे से गुम हो जाऊँ
और किसी छोटे से स्वप्नके पीछे जा कर छुप जाऊँ
ऐसे में बिन आहट के समय को क्या लाँघ सकोगे तुम
आज कुछ माँगती हूँ प्रिय...
क्या दे सकोगे तुम?
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